छठ सूक्त

 

ॠ. 5. 67

 

धारक और रक्षक देव-युगल

 

[ मित्र और वरुण अतिचेतन सत्ताकी उस विशालताको पूर्ण करते हैं जो यज्ञका लक्ष्य है । वे उसकी शक्तिके पूर्ण प्राचुर्यसे संपन्न हैं । जब वे उस ज्योतिर्मय मूलस्रोत और धाम तक पहुंचते हैं तो वे यज्ञिय कार्यके लिए प्रयास करनेवाले मनुष्योंको उसकी शान्ति और आनंद देते हैं । उस लक्ष्यकी ओर जाते हुए वे मर्त्यकी उसके उन अध्यात्म-सत्ताके शत्रुओंसे रक्षा करते हैं जो उसकी अमरताके मार्गमें बाधा डालना चाहते हैं; क्योंकि वे अपनी उच्चतर क्रियाओं और उच्चतर चेतनाके उन स्तरोंके साथ दृढ़तासे संसक्त रहते हैं जिनके साथ उन क्रियाओंका सम्बन्ध है और जिनकी ओर मनुष्य अपने आरोहणमें ऊपर उठता है । विश्वव्यापी और सर्वज्ञ वे उन शत्रुओंका विध्वंस कर देते हैं जो अहंकार और प्रतिबंधक अज्ञानकी शक्तियाँ हैं । अपनी सत्तामें सच्चे वे देव ऐसी शक्तियाँ हैं जो प्रत्येक व्यक्तिगत सत्तामें सत्यको स्पर्श करती और अधिकृत करती हैं । यात्रा और युद्धके नेता वे हमारे संकीर्ण और आर्त मर्त्यभावमेंसे भी उस उच्चतर चेतनाकी विशालताका सर्जन करते हैं । यही है वह सर्वोच्च सत्ता जिसके लिए अत्रि-ऋषियोंका विचार अभीप्सा करता है और जिस तक वह विचार मानव आत्मा द्वारा अधिष्ठित ''शरीरों''में महान् देवों--मित्र, वरुण तथा अर्यमाको प्रतिष्ठित करके पहुंचता है । ]

बलित्था देव निष्कृतमादित्या यजतं बृहत् ।

वरुण मित्रार्यमन् वर्षिण्ठं क्षत्रमाशाथे ।।

 

(देवा) हे देवताओ ! (आदित्या) हे अनन्त माता अदितिके तुम दो पुत्रो ! (बट) सचाई यह है कि (यजतं बृहत्) वह विशालता जिसके लिये हम यज्ञ करते है (इत्था नितकृतम्) तुम्हारे द्वारा यथावत् पूर्ण की हुई है । (वरुण मित्र अर्यमन्) है वरुण ! हे मित्र ! हे अर्यमन् ! (वर्षिष्ठं क्षत्रम् आशाथे) तुम इसकी अधिक-से-अधिक विपुल शक्तिको धारण करते हो ।

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आ यद् योनिं हिरष्ययं वरुण मित्र सदथ: ।

धर्तारा चर्षणीनां यन्तं सुम्नं रिशादसा ।।

 

(वरुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! (चर्षणीनां धर्त्तारा) मनुष्योंको उनके प्रयासमें आश्रय देनेवालो ! (रिशादसा) शत्रुका संहार करनेवालो ! (यत्) जब तुम (हिरण्ययं योनिम्) अपने सुवर्णमय प्रकाशके आदिधाममें (आ सदथ:) प्रवेश करते हो, तब तुम उन्हें (सुम्नं यन्तम्) आनंद प्राप्त कराओ ।

विश्वे हि विश्ववेदसो वरुणो मित्रो अर्यमा ।

व्रता पदेव सश्चिरे पान्ति मत्यं रिष: ।।

 

(वरुण: मित्र: अर्यमा) वरुण, मित्र और अर्यमा (हि) निश्चय ही (विश्वे) विश्वव्यापी और (विश्ववेदस:) सर्वज्ञ हैं । (व्रता सश्चिरे) अपनी क्रियाओंके विधानमें वे दृढ़ रहते हैं, (पदा-इव) उसी तरह जैसे कि वे अपने उन स्तरोंपर भी अडिग रहते हैं जिनपर वे पहुंचते हैं । वे (मर्त्यम्) मर्त्य मनुष्यकी (रिषः पान्ति) उसके शत्रुओंसे रक्षा करते हैं ।

ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जनेजने ।

सुनीथास: सुदानवोंऽहोश्चिदुरुचक्रय: ।।

 

(ते हि सत्या:) क्योंकि वे अपनी सत्तामें सच्चे हैं इसलिए वे (जने-जने ऋतस्पृश:) प्राणी-प्राणीमें सत्यको स्पर्श करते हैं और (ऋतवान:) सत्यको धारण किए रहते हैं । (सुनीथास:) यात्राके पूर्ण पथप्रदर्शक, (सुदा-नव:) युद्धके लिए पूर्ण-शक्तिसंपन्न वे (अंहो चित्) इस संकुचित सत्तामेंसे भी (उरुचक्रय:) विशालता का सर्जन करते हैं ।

को नु वां मित्रास्तुतो वरुणो मा तनूनाम् ।

तत्सु वामेषते मतिरत्रिम्य एषते मति: ।।

 

(मित्र) हे मित्र ! (वां क: वरुण: वा) तुम दोनोंमेंसे वह कौन है, तू या वरुण, जो (तनूनाम्) हमारे शरीरों1में (अस्तुत: नु) स्तुति द्वारा

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1. केवल भौतिक शरीर नहीं; आत्मा यहाँ पांच कोषों या शारीरिक आवरणोंमें

   निवास करती है ।

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धारक और रक्षक देव-युगल

 

प्रतिष्ठित नहीं हुआ ? (मति:) हमारा बिचार (वाम्) तुम दोनोंसे (तत् सु एषते) पूर्णतया उस परमतत्त्वको चाहता है, (अत्रिभ्य:1 मति: [तत्]एषते) भोक्ताओंके लिए हमारा विचार उसीकी अभिलाषा करता है ।

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 1. अत्रि-शाब्दिक अर्थ है भोक्ता; इस शब्दका अर्थ यात्री भी हो सकता है ।

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